आपका स्वागत है।

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

"और वे जी उठे" !


"और वे जी उठे" !

मैं 'निराला' नहीं 
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ 
'दुष्यंत' की लेखनी का 
गुरूर ज़रूर हूँ 

'मुंशी' जी गायेंगे मेरे शब्दों में 
कुछ दर्द सुनायेंगे 
सवा शेर गेहूँ के 
एक बार मरूँगा पुनः 
साहूकार के खातों में 
भूखा नाचूँगा नंगे 
तेरे दरवाज़ों पे 
अपनी ही लेखनी का 
एक फ़ितूर ज़रूर हूँ   

मैं 'निराला' नहीं 
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ 
'दुष्यंत' की लेखनी का 
गुरूर ज़रूर हूँ 

वह आज भी तोड़ती पत्थर 
मिलती नहीं इलाहाबाद के पथ पर 
तलाश तो बहुत थी 
उसकी परछाईयों की 
रह गई वो इमारतों की 
नींव में धंसकर 

खोदता उस नींव को 
दिख जाये ! वो तोड़ने वाली 
उसके अस्तित्व को टटोलता 
क्षणभर का राहगीर ज़रूर हूँ 

मैं 'निराला' नहीं 
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ 
'दुष्यंत' की लेखनी का 
गुरूर ज़रूर हूँ 

मैं फिर हिलाऊँगा !
नींव की दीवार 
मैं फिर चलाऊँगा !
लाशें हजार 
मक़सद नहीं बलबा मचाने का 
शर्त 'दुष्यंत' का है 
तुझको जगाने का 
मैं सरफिरा सिपाही 
नशे में चूर हूँ 

 मैं 'निराला' नहीं 
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ 
'दुष्यंत' की लेखनी का 
गुरूर ज़रूर हूँ 

एक वक़्त था,जब कभी 
'मुर्दे' जगाता था 
वो वक़्त था,खामोख्वाह ही 
क़ब्रें हिलाता था 
जागे नहीं वो नींद से 
मर्ज़ी थी जो उनकी 
ज़िन्दों की बस्ती में 
आकर यहाँ 
आँसूं बहाता हूँ 
जग जा ! ओ जीवित मुर्दे 
मैं पगला दुहराता हूँ 
व्यर्थ स्वप्नों की पोटली 
बाँधता ज़रूर हूँ 

मैं 'निराला' नहीं 
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ 
'दुष्यंत' की लेखनी का 
गुरूर ज़रूर हूँ 


"एकलव्य" 


4 टिप्‍पणियां:

रेणु ने कहा…

प्रिय एकलव्य ------- आपकी लेखनी से निकली इस ओज भरी रचना में एक संवेदन शील , और सपर्पित कवि के मन की टीस नजर आती है | एक सिरफिरे कलम के सिपाही का जोशीला उद्घोष है ये रचना | सचमुच आज देश , समाज विचार शून्य ज़िंदा लोगों का जमावड़ा मात्र बन कर रह गया है - उनको जगाने का ज़ज्बा हर एक में नहीं है | कोई निराला , प्रेमचंद , दुष्यंत कुमार सरीखा अपनी रचनाओं से सुप्त समाज को झझकोरने जरुर आयेगा | और आप में भी ऐसी ही संभावना नजर आती है प्रिय ध्रुव | आपकी लेखनी का ओज बना रहे ------ कितना सुंदर लिखा है आपने ---------
ज़िन्दों की बस्ती में
आकर यहाँ
आँसूं बहाता हूँ
जग जा ! ओ जीवित मुर्दे
मैं पगला दुहराता हूँ
व्यर्थ स्वप्नों की पोटली
बाँधता ज़रूर हूँ --------
इस सपनों की पोटली में बंधे सपने किसी दिन जरुर पूरे होंगे ऐसी कामना मन में रखनी चाहिए | जो अंदर से विकल हो कुछ करने का ज़ज्बा रखते है -- वही क्रांति के सूत्र धार बनते हैं | सस्नेह शुभकामना आपको |

Meena sharma ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Meena sharma ने कहा…

एक वक़्त था,जब कभी
'मुर्दे' जगाता था
वो वक़्त था,खामोख्वाह ही
क़ब्रें हिलाता था
जागे नहीं वो नींद से
मर्ज़ी थी जो उनकी
कविता का यह बंध, एक जागरूक कवि की समाज को बदलने की आकांक्षा एवं न बदल पाने की विवशता को पाठक का हृदय झकझोरकर व्यक्त करता है। एक सशक्त अभिव्यक्ति।

Bharti Das ने कहा…

बहुत बहुत सुंदर प्रस्तुति